भ्रम
टीकेश्वर सिन्हा ' गब्दीवाला '
' महेंद्र की माँ ! लगता है घर नहीं पहुँच पाएँगे आज शाम तक भी। त्यौहार हमारा इस साल का; गया। नहीं मना पाएँगे हम अपने बच्चों के साथ होली। छोटे-छोटे बच्चे भी दादा-दादी कैसे नहीं आ रहे हैं ; सोच रहे होंगे। हमारा नसीब ही खराब है। ' ट्रेन मिस होने पर लोकनाथ ने अपने गाँव जाने वाली बस का पता लगाया। अपने हताश पति लोकनाथ को देख कौशल्या के चेहरे पर बदरी छा गयी।
' अब कर ही क्या सकते हैं ? चल, पैदल चलते हैं। पहुँचेंगे साँझ-रात तक।' अपना सामान समेटते हुए कौशल्या बोली।
' पर आज के दिन माहौल बहुत खराब रहता है। लोगों का बस पीना-खाना तो है। मैं अकेला रहता, तो बात अलग होती। ' लोकनाथ का चिंतित स्वर निकला। सोच-विचार करके दोनों बस स्टैंड से निकल पड़े।
' एक घंटा का रास्ता तय हुआ था। तभी एक पुलिस गाड़ी की आवाज सुन लोकनाथ और कौशल्या किनारे हुए। गाड़ी रूकते ही दोनों घबरा गए। एक पुलिस अधिकारी ने खिडक़ी से झाँकते हुए दोनों पति-पत्नि से उनकी जानकारी ली। फिर दोनों को बड़े सम्मानपूर्वक गाड़ी पर बिठाया। बीस-पच्चीस मिनट बाद गाड़ी लोकनाथ के गाँव पहुँच गयी।
' लो साब हमारी तरफ से मिठाई ले लेना अपने बच्चों के लिए।' गाड़ी से उतरते हुए लोकनाथ ने पुलिस अधिकारी को सौ रुपये का नोट दिया। कौशल्या को नोट लौटाते हुए पुलिस अधिकारी बोले- ' लो अम्मा, इसे आप रक्खो। इससे अपने नाति-नातिनों के लिए पिचकारी ले देना। ' गाड़ी पर बैठे सभी पुलिस वाले गाड़ी से उतरे, और लोकनाथ-कौशल्या के माथे पर गुलाल लगाए।
मुड़ते हुए गाड़ी पर बैठे पुलिस अधिकारी को देख आज पुलिस के प्रति लोकनाथ का भ्रम दूर हो गया। कौशल्या पुलिस अधिकारी की वर्दी के स्टार्स को गिन रही थी- ' एक.. दो.. तीन...।'